जाल में घिरा मानव

जाल में घिरा मानव
अक्षय कटोच (Akshay Katoch)
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ये जिन्दगी कोई गीत नहीं,
गुनगुनाई और मुस्कुराये।
ये कविता भी नहीं,
पढ़ी और भूल गये।
ये है इक गहराई अतल,
ये है इक शून्य, अपार,
न आरम्भ है, न अन्त है,
न मध्य है, न सीमान्त है।
साँसों की डोर से बना जाल,
मकड़ी है मानव, बुनता है,
बुनता जाता है
यह सोच कर खुश, कि बन रहा है
पर बेखबर कि घिर रहा है।
न सकेगा निकल।
बुनता जाता है,
थक जाता है बुनते-बुनते।
देखता है पीछे
कोई आरम्भ नहीं,
देखता है आगे,
कोई अन्त नहीं।
चारों तरफ जाल ही जाल,
जाल बुनता मानव,
मानव नहीं मकड़ी,
मर जाता है
साँसों से बना ये जाल,
अपार, अतल, शून्य।

1 Response
  1. Ye jindagi koee geet nahee ki gungunaye aur muskuraye. kash aisa ho sakta par makad jal jitani buree bhee nahee shayad. kawita badhiya hai.