शुभकामनायें - आज कुमारेन्द्र-निशा की वैवाहिक वर्षगाँठ है


मेरे प्रिय अनुज, ब्लॉग-जगत के नामचीन, रायटोक्रेट कुमारेन्द्र, बुन्देलखण्ड, साहित्यांश जैसे व्यक्तिगत ब्लॉग तथा पहला एहसास एवं साहित्यिक ब्लॉग शब्दकार (दोनों सामुदायिक ब्लॉग) के संचालक होने के साथ-साथ साहित्यिक पत्रिका स्पंदन (ये पत्रिका ब्लॉग पर भी उपलब्ध है) के सम्पादक कुमारेन्द्र सिंह सेंगर की आज (8 दिसंबर को) वैवाहिक वर्षगाँठ है।


उनके तथा उनकी पत्नी के लिए आशीर्वाद तथा शुभकामनायें।

चलते-चलते

चलते-चलते
अक्षय कटोच (Akshay Katoch)
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थक गये हैं कदम तेरे चलते-चलते,
पल भर को रुक के देख राही,
कहाँ से चले, आ पहुँचे कहाँ, चलते-चलते।
जब तक थी आस मिलने की मंजिल,
काँटे राह के काँटे न थे,
पाँव के छालों से अब होता है एहसास,
बेवफा है वो, न मिलेगी कभी चलते-चलते।
झुकाए हुए सर को कहाँ जाते हो गुमसुम,
बहारें तो गईं, न आने को फिर से चलते-चलते।
उजड़ गया जो गुलशन में रहकर,
उस फूल को सवा रोती नहीं,
छुपा ले जमाने से टूटे दिल को अपने,
कहीं जाए न बिखर, पाकर वही नजर चलते-चलते।

जाल में घिरा मानव

जाल में घिरा मानव
अक्षय कटोच (Akshay Katoch)
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ये जिन्दगी कोई गीत नहीं,
गुनगुनाई और मुस्कुराये।
ये कविता भी नहीं,
पढ़ी और भूल गये।
ये है इक गहराई अतल,
ये है इक शून्य, अपार,
न आरम्भ है, न अन्त है,
न मध्य है, न सीमान्त है।
साँसों की डोर से बना जाल,
मकड़ी है मानव, बुनता है,
बुनता जाता है
यह सोच कर खुश, कि बन रहा है
पर बेखबर कि घिर रहा है।
न सकेगा निकल।
बुनता जाता है,
थक जाता है बुनते-बुनते।
देखता है पीछे
कोई आरम्भ नहीं,
देखता है आगे,
कोई अन्त नहीं।
चारों तरफ जाल ही जाल,
जाल बुनता मानव,
मानव नहीं मकड़ी,
मर जाता है
साँसों से बना ये जाल,
अपार, अतल, शून्य।